मैं और मेरा शहर आजकल खुशफ़हमियों के बीच जिंदा हैं|इस जीवन विरोधी समय में जिंदा रहने के लिए घनघोर आशावाद ज़रूरी है|वैसे यह कमोबेश जिंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों से आंखें फिरा लेने जैसा भी है|मैंने आशावाद को सायास ओढ़ रखा है क्योंकि कुछ लोगों की राय है कि इसे ओढ़ लेने के बाद मेरे चेहरे से अमूमन रचनाकारों के मुख मंडल पर चिपका रहने वाला मनहूसियत का स्थाई भाव छिप जाता है|उम्र के इस पड़ाव पर जहाँ मैं ठिठका खड़ा हूँ , बदसूरती के खिलाफ हर टोटका अजमाने को जी चाहता है|मेरे लिए यह आशावाद शनि के प्रकोप से अपने कारोबार को बचाये रखने के लिए दुकानों के बाहर लटकते नीबू और हरी मिर्चों के बंदनवार जैसा ही है |इससे कम या अधिक कुछ भी नहीं|कुछ भ्रम ,थोड़े बहुत मुगालते,बित्ता भर हसीन ख्वाब ....इनकी दरकार किसे नहीं होती|
मेरे शहर के पास तमाम खुशफहमियों के लिए पर्याप्त पुख्ता कारण हैं|स्टेनले मौर्गन के एक ताज़ातरीन सर्वे में मेरठ को देश का पांचवा सबसे अधिक तेज़ी से विकास की ओर अग्रसर और जीवंत (वाइब्रेंट) शहर बताया गया है|विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मेरा शहर उत्तर प्रदेश में नॉएडा के बाद दूसरे नम्बर का सबसे तेज़ी से विकसित होता महानगर है|ये ख़बरें भी लगातार अखबारों की सुर्खियाँ बन रही हैं कि मेरठ और दिल्ली के बीच मेट्रो ट्रेन की तर्ज़ पर रेपिड ट्रेन चलेगी|तब बेगमपुल से आनंद विहार पहुँचने में महज़ चालीस मिनट का ही समय लगेगा|मेरठ से निजामुद्दीन के मध्य 16 लेन का एक्सप्रेस हाइवे बनने का भी प्रस्ताव है|यदि ऐसा हुआ तो दिल्ली दूर वाला मुहावरा ही मेरे शहर के लिए अर्थवत्ता खो देगा|
इतनी सारी शुभसूचनाओं को सुन - सुन कर किसी को अपने आखों पढ़ी और कानों सुनी पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा है .कुछ शंकालु मन तो वो जगह तलाशते फिर रहे हैं,जहाँ वे शहर को बुरी नज़र से बचा कर रखने वाला काला टीका लगा सकें|यदि उन्हें मिल जाये तो वो शहर के हाथ में नज़रिया भी बांध देना चाहते हैं |एक उत्साही ट्रांसपोर्टर की तो राय है कि शहर के प्रमुख स्थानों पर एक अदद चुटिया और फटे हुए जूते टांग कर यह लिखवा दिया जाये-बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला|यही कारण रहा कि मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों के बाद कोई केंडिल मार्च नहीं निकला|सबको यही लग रहा है कि जब मुकद्दर हमारे साथ है तब कोई क्या करलेगा|खुशफहमी में आकंठ डूबा आदमी या तो जंभाई लेता है या फिर शाब्दिक जुगाली.दूसरों के दुःख तकलीफों में शरीक होने की उसे क्या ज़रूरत |
मेरे आशावादी मुखोटे के पीछे एक तार्किक चेहरा भी है जिसके पास नुकीले सवालों वाली नागफनी है|वह ये मानने को कतई तैयार नहीं कि जब एक्सप्रेस हाइवे बनेगा तो राह में पड़ने वाले उपनगरों के वे कारोबारी जो अपनी दुकानों को पीछे छोड़ कर अपना सामान हाइवे पर सजा कर अपना व्यपार करने के आदी रहे हैं ,ये सब यूं ही होने देंगे?.रेपिड ट्रेन के लिए जब किसी के घर की छत के ऊपर से होकर या किसी की दुकान और गोदाम के नीचे से होकर लाइन बिछनी शुरू होगी तो व्यापार की गोपनीयता भंग होने और बेपर्दगी जैसे मसले नहीं उठेंगे ? ऐसे ही सवालों को जब राजनीति का तड़का लगा कर परोसा जायेगा,तब इन स्वप्निल परियोजनाओं का क्या भविष्य होगा?
मेरे आशावाद में दरार पैदा होने के कुछ निजी कारण और अनुभव भी हैं|मुझे याद है जब परतापुर का फ्लाईओवर बनना शुरू हुआ था तब मैं जवानी की दहलीज़ पर था और एक सुबह जब उस फ्लाईओवर से होंकर यातायात गुजरा तब तक हमें शहर की तमाम युवतियां द्वारा अंकलजी के ख़िताब से नवाज़ा जा चुका था|परतापुर के रेल फाटक के खुलने का इंतज़ार करते और वहां बिकते मसालेदार खीरों और लाल -लाल टमाटरों का रसास्वादन करते जवानी कब बीत गई, पता ही नहीं चला| अभी सूचना यह है कि सब कुछ ठीक -ठाक रहा तो इन परियोजनाओं पर दो या तीन बरस बाद काम शुरू होगा |मुझे यदि इन परियोजनाओं के फलित का साक्षी बनना है तो खाली आशावाद से कुछ नहीं होने वाला |समय के केल्कुलेटर पर टिपटिपाती काल की गतिशील उँगलियों को कोई थामे तो बात बने |
3 comments:
मेरठ की तरक्की के लिए मुबारकवाद.मुबई धमाकों पर अब कैंडल मार्च भले न निकला हो लेकिन १९७० में अपना प्लेन लाहौर में फूंक दिए जाने के विरोध में सर्दियों में भी जबरदस्त जुलूस निकला था जिसमें मेरठ कालेज के तत्कालीन प्राचार्य डा.भट्टाचार्य ने भी भाग लिया था.
बहुत अच्छा लगा इस शहर के बारे में जानना।
बधाई ||
सुन्दर प्रस्तुति ||
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