तुम्हारे बिना अयोध्या
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राम !
तुम्हारी अयोध्या मैं कभी नहीं गया
वहाँ जाकर करता भी क्या
तुमने तो ले ली
सरयू में जल समाधि.
अयोध्या तुम्हारे श्वासों में थी
बसी हुई थी तुम्हारे रग-रग में
लहू बन कर .
तुम्हारी अयोध्या जमीन का
कोई टुकड़ा भर नहीं थी
न ईंट गारे की बनी
इमारत थी वह.
अयोध्या तो तुम्हारी काया थी
अंतर्मन में धड़कता दिल हो जैसे .
तुम भी तो ऊब गए थे
इस धरती के प्रवास से
बिना सीता के जीवन
हो गया था तुम्हारा निस्सार
तुम चले गए
सरयू से गुजरते हुए
जीवन के उस पार.
तुम गए
अयोध्या भी चली गई
तुम्हारे साथ .
अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खोफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते .
तुम्हारे बिना अयोध्या
तुम्हारी अयोध्या नहीं है
वह तो तुम्हारी हमनाम
एक खतरनाक जगह है
जहाँ से रुक -रुक कर
सुनाई देते हैं
सामूहिक रुदन के
डरावने स्वर.
राम !
मुझे माफ करना
तुम्हारे से अलग कोई अयोध्या
कहीं है इस धरती पर तो
मुझे उसका पता मालूम नहीं ,
6 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
आभार, आंच पर विशेष प्रस्तुति, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पधारिए!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
निर्मल जी.. आपकी यह कविता भारत के मानस मे राम किस प्रकार बसे है और किस प्रकार अयोध्या हमारी सन्सक्रिति से जुडे है... बता रही है.. राम के बिना अयोध्या और अयोध्या के बिना राम शायद सम्भव नही.. आस्था के इस दर्द को शयद राम ही समझ सके... "तुम्हारे बिना अयोध्या" वास्तव मे एक शोक गीत है जिसमे राम फिर से विस्थापित हो रहे है.. फिर से वनवास जा रहे है.. इस बार समय तय नही है.. अब शायद अयोध्या अयोध्या ही ना रह जाये...
"अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खोफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते."
एक ऐसा चित्रण जो स्वयं में सबकुछ कह जाता है. देश की सामूहिक सोच को उजागर करते हुए वास्तविक सरोकारों की ओर ध्यान आकर्षित करता है. यहाँ जो यथार्थ उकेरा गया है उसकी अपेक्षा आज देश की जनता को कदापि नहीं है.सामायिक विषय पर एक बेहद संवेदनशील रचना.
"अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खोफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते."
एक ऐसा चित्रण जो स्वयं में सबकुछ कह जाता है. देश की सामूहिक सोच को उजागर करते हुए वास्तविक सरोकारों की ओर ध्यान आकर्षित करता है. यहाँ जो यथार्थ उकेरा गया है उसकी अपेक्षा आज देश की जनता को कदापि नहीं है.सामायिक विषय पर एक बेहद संवेदनशील रचना.
व्यंग्य लेख तो दिखाई नहीं दिया ,प्रस्तुत कविता उत्तम है.आज अयोद्ध्या में साम्राज्यवादियों का बोया पुराना खेल ही चल रहा है.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति... यह पहले मैंने इर्दगिर्द में पढ़ी थी और वहाँ टिपण्णी दी है... सुन्दर रचना के लिए बधाई...
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