मेरे शहर में आजकल हालात एकदम सामान्य हैं.कहीं से किसी अप्रिय घटना का कोई समाचार नहीं.अफवाहों के वो कुऐं भी सूख गए हैं ,जिनके जल से कभी सारा वातावरण तरबतर रहा करता था.वो जुलाहे जाने कहाँ चले गए जो रात दिन आशंकाओं के चरखे पर अनहोनी की कपास कातते थे.एक अतिसंवेदनशील शहर का अनायास ही यूं संवेदना शून्य हो जाना सभी को हैरत में डाले है.साम्प्रदायिकता के तराजू में तौल कर,स्थान के मिजाज के अनुरूप और पलड़े के झुकाव के अनुसार अपनी -अपनी कविता और शायरी की दुकान सजाये बैठे कविताफरोश अपने धंधे पर आई मंदी से खौफज़दा हैं.वे तो अब सरेआम कहते घूम रहे हैं कि इस शहर में कविता के सच्चे कद्रदान हैं कहाँ.कुछ शंकालु मन,सदा आशंकाओं के घटाटोप में रहने के आदी स्वछंद विचारक और आपसी कलह के तंदूर पर अपने रोटियाँ सेंकने की कला में निष्णात खानसामे अब यह कह कर आस लगाये हैं कि यह किसी आगत सुनामी के ठीक पूर्व का सन्नाटा है.
यह किसी आशंका की ओर इंगित करता सन्नाटा है या शहर के बदल चुके मिजाज़ की निशानदेही,कौन जाने.इस सवाल का जवाब तो केवल आने वाले समय के पास है या फिर उन भविष्यवेत्ताओं के पास जिनका दावा है कि ऊपरवाले से उन्हें भवितव्य घोषणा की फ्रेंचाइजी प्राप्त है.अधिकांश अखबारनवीस निठल्ले हो गए हैं.उनकी अनुभवी और सधी हुई प्रशिक्षित अंगुलियां कम्प्युटर पर यह इबारत दर्ज करने के लिए कुलबुलाती रहती हैं कि शहरों में चारों ओर तनाव पसरा है.संवेदनशील इलाकों में सशस्त्र पुलिस बल की गश्त निरंतर जारी है.स्तिथि तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है.पीढ़ी दर पीढ़ी ये पक्तिंयाँ पत्रकारिता में दंगाई हालात के बयान की मानक बन चुकी हैं.
नवोदित पत्रकारों में अलग प्रकार की बेचैनी व्याप्त है.उन्हें अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का पर्याप्य मौका नहीं मिल पा रहा है.घटनाविहीन हालात में वे लिखें तो क्या लिखें.पत्रकारिता का डिप्लोमा या डिग्री लेते हुए जो कुछ उस्तादों ने सिखाया था वो भी काम नहीं आ रहा.शून्य में से समाचार क्रियेट करने का गुरुतर दायित्व उनके कंधे पर किसी वजनी उल्लू की तरह बैठ मुंह चिढाता है.
समस्त मीडियाकर्मियों के लिए वास्तव में यह कठिन समय है.अखबार का प्रकाशन प्रतिदिन होना है.उसमें ख़बरों की स्पेस को घटा पाना महामहिम प्रात:स्मरणीय विज्ञापनदाताजी के अतिरिक्त किसी के वश में नहीं.और यदि स्पेस उपलब्ध है तो उसे भरने के लिए ख़बरें तो चाहियें ही.बेचारे क्राईम रिपोर्टर दिन भर ख़बरों की तलाश में पुलिस थाने से लेकर पोस्टमार्टम हाउस तक और अपराधियों के सर्वज्ञात गोपनीय ठिकानों से लेकर उनके संभावित अभयारण्यों तक लगातार चक्कर काटा करते हैं.लेकिन सब व्यर्थ.कहीं कोई खबर हो तो मिले.अलबत्ता टेलिविज़न चेनलों के मेधावी रिपोर्टर तो शहर के नामचीन या कुख्यात तांत्रिकों से साठगांठ कर टी.आर .पी बढाने योग्य कुछ न कुछ गढ़ ही लेते हैं.उनकी इस क्षमता का तो पूरा शहर कायल है .पर चिंतित ये भी हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भूत प्रेतों की कितनी काल्पनिक कथाएँ आखिर कब तक परोसेगें दर्शकों को.हालात यदि कुछ दिन और ऐसे ही सामान्य बने रहे तब तो एक -एक बाईट के लिए तरसना ही पड़ेगा.
नीम और इमली के पेड़ के नीचे स्थापित चाय और पकोड़ों के उन दुकानों पर , जिन्हें शहर भर के पत्रकारों और बुद्धिजीविओं ने काफ़ी हाउस का दर्ज़ा दिया हुआ है ,में यह चर्चा जोरशोर से चल रही है कि वो कौन से कारण हैं कि जिनके चलते शहर के हालात सामान्य हैं.सब एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या शहर का पुलिस तंत्र अचानक कर्मठ और अतिशय चौकन्ना हो गया है?क्या अपराध की दुनिया के तमाम मेधावी शख्सियतों के पास कर्म करने की इच्छाशक्ति खत्म हो गई है?क्या शहर के सब लोग रातों--रात सजग,सहिष्णु,सहृदय,और जिम्मेदार नागरिक बन गए हैं.क्या वातावरण में अग्नि प्रज्वलित कर देने वाले वक्ताओं के पास मुद्दे और नुकीले और फास्फोरसयुक्त शब्दों का आकाल पड़ गया है ?क्या राजनीतिक हलकों में नाम चमकाने के लिए साम्प्रदायिकता भडकाने का अमोघ हथियार अपनी उपादेयता खो चुका है?
इस समय शहर की फिजा में ये सवाल किसी अनिष्ट की आशंका को लिए हुए किसी गिद्ध की तरह मंडरा रहे हैं.आईये मिलजुल कर इनका मुंहतोड जवाब ढूंढे.
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