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Friday, July 1, 2011

जादुई छड़ी का निहितार्थ



आखिरकार सत्ता के सर्वोच्च शिखर से आवाज़ आई -मेरे पास कोई जादुई छड़ी नहीं है.इसके पूर्व भी तमाम सत्ता केन्द्रों से यही आवाज़ सुनाई दे रही थी कि हमारे पास कोई जादुई छड़ी नहीं है.इसके बावजूद भोली प्रजा को अपने कानों सुनी पर यकीन नहीं हो रहा था.वे उनकी बात पर विशवास करें भी तो कैसे?जिनके पास चुनावों के समय अनेक जादुई छड़ी ,रसपगे मन्त्र और आश्वासनों के पिटारे थे ,वे अब चले कहाँ गए?उन्हें लगा कि उनका यह कथन बड़े लोगों की कोई अदा है .बड़े लोगों का बड़प्पन प्राय: इसी प्रकार अभिव्यक्त हुआ करता है.
लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि सत्ता के शिखर से जो आवाज़ आ रही है,वह सच ही है और सच के सिवा कुछ नहीं है.यह बात तो मुझे लगभग चार दशक पहले पता लग चुकी थी कि इस दुनिया में जादुई छड़ी का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है लेकिन पापी पेट के लिए इस छड़ी की प्रतीति अपरिहार्य है.चाहे इसका इस्तेमाल कोई चमत्कारी धर्मगुरु करे या सत्ता के शार्टकट के लिए मेधावी नेता या फिर सड़क के किनारे डमरू बजा कर दंतमंजन,हाज़माई चूर्ण या सेक्सवर्धक नुस्खा बेचता कोई मदारी.वस्तुतः समाज की ये तीन नियामक शक्तियाँ एक दूसरे का पर्याय हो गईं हैं.इस सच को अंगीकार करने में मुझे अपने आप से काफी जद्दोजेहद करनी पड़ी और संस्कारों द्वारा खड़ी की गई अनेक दीवारों को लांघना पड़ा.सच के इस अन्वेषण की प्रक्रिया को ठीक से समझने के लिए आपको मेरे साथ साठ के दशक में चलना होगा ,जहाँ मेरा बचपन अपने बिंदास अंदाज़ में मौजूद है.
यह वह समय था,जब तक टेलीविजन,कम्पूयटर,इंटरनेट आदि ने कम से कम मेरे शहर में तो आमद दर्ज नहीं कराई थी और हर आदमी सीधा सरल और इकहरा जीवन जिया करता था.तब वर्चुअल और रियल जीवन जीने की कोई सम्भावना ही मोजूद नहीं थी.तब ऐसा कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण था ही नहीं जो भ्रम का संसार रच सके.हाथ की सफाई में पारंगत वाकपटु मदारी ही थे जो दर्शकों को काल्पनिक दुनिया में ले जाते थे और अपने खेल के अंत में यह स्वीकारोक्ति भी अपने पिचके हुए पेट को उघाड़ कर देता था कि यह तो तमाशा है केवल.
तब मेरा शहर एक उनीदा -सा शहर था.एक  चौराहे पर  मदारी उन दिनों बेनागा हर रोज मजमा लगाता,जिसे देखने के लिए तमाशबीनों की खूब भीड़ जुटती थी.मदारी अपने साथ लकड़ी के दो छोटे चपटे आकार वाले डंडे लेकर आता था ,जिसे वह जमीन पर एक दूसरे के ऊपर इस प्रकार रखता कि हवाई -जहाज की आकृति बन जाती.फिर वह तमाशबीनों में कौतूहल जगाने के लिए ऐलान करता -मेरे झोले में एक जादुई छड़ी है जिसे मैं इस पर घूमाउंगा तो यह हवाई जहाज उड़ने लगेगा.इसके बाद वह हथेली में छुपा कर गुल्ली जैसी कोई चीज़ यह कह कर दिखाता कि यही है वह जादुई छड़ी.इसके बाद वह एक बाद दूसरा करतब दिखाता जाता और मेरा मासूम कौतुहल हवाईजहाज की उड़ान के इंतज़ार करता रहता.मजमा समाप्त हो जाता.तमाशबीन  इनाम इमदाद के बतौर जो दे जाते उसे समेटता ,आसमान की ओर देखकर अल्लाह का शुक्रिया अदा करता और अपने रास्ते चल देता.आखिर एक दिन उस मासूम तमाशबीन ने मदारी से कह ही दिया -बाबा ,हवाईजहाज उड़ाओ न.फेर दो इस पर जादुई छड़ी.मदारी तब ठट्टा कर हंसा-बेटा मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं.एक गुल्ली है बस और  तुम जिसे हवाईजहाज समझ रहे हो डंडे हैं जिससे मेरे बच्चे उस दिन खेला करते हैं जिस दिन  मैं उनके लिए भरपेट खाना ले जाने में कामयाब हो जाता हूँ.
मुझे मालूम है जादुई छड़ी का मर्म.किसी नेता के पास कभी कोई जादू की छड़ी नहीं रही.सत्ता में आने से पहले इनके पास फ़रेबी शब्दों का मायाजाल होता हैऔर सत्ता पाने के बाद अहंकार और  दंभ से भारी तेजाबी ज़बान.इनके पास एक मजबूत ,खुरदरा और खौफनाक डंडा होता है,जिससे वे समय-असमय रिआया को आतंकित किया करते हैं.अलबत्ता इनके पास एक जादुई जेब और फूली हुई तोंद ज़रूर है,जिसमे जाकर देश की सारी सम्पदा गुम या हज़म हो जाती है.

1 comment:

vijai Rajbali Mathur said...

बेबाक लेख सराहनीय है.

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