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Tuesday, July 19, 2011

जिमखाना के लिए एक शोक गीत

कभी मेरे शहर में एक जिमखाना हुआ करता था ,जिसे मेरठ की अधिसंख्य जनता जीमखाना के नाम से जानती और पहचानती थी.मेरे शहर की बोलचाल का अपना अंदाज़ है ,यहाँ की बोलचाल की भाषा में एकाध मात्रा का बढ़ जाना आम बात है.यहाँ चेन झपटमार को चैन झपटमार कहा जाता है.गोरी यहाँ गौरी हो जाती है और सोनी महिवाल वाली  सोनी को  यहाँ सौनी पुकारा जाता है.जिन्दा दिलों के इस शहर ने अपने हिज्जे और मुहावरे गढ़ रखे हैं.यहाँ के लोग अतीत और वर्तमान को पूरी शिद्दत से जीते हैं.भविष्य को लेकर इनके कभी बड़े मंसूबे नहीं रहे.इनकी भावनाओं के साथ इतनी बार और इतने तरीकों से छल किया जा चुका है कि अब तो मेरे शहर के लोग ज़ज्बाती होना ही लगभग भूल चुके हैं.
मेरठ की जनता का जिमखाना या जीमखाना के साथ एक अजब भावनात्मक सम्बन्ध था.बेतरतीब कोंक्रीट के उगते जंगल के बीच इसका खुला मैदान सभी को सुकून देता था .इसी मैदान पर खेलते हुए अनेक क्रिकेट के खिलाडियों ने राष्ट्रीय स्तर पर मुकाम बनाने के सपने देखे.इनमे से कुछ सपने रणजी और सेन्ट्रल जोन स्तर तक की पायदान तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब भी हुए.इसी मैदान पर खेल -खेल में बहुत से क्रिकेटर लोकल नायक का  सम्मान पाने में सफल रहे.बिना किसी दर्शक दीर्घा के यहाँ यहाँ दर्शकों की खूब भीड़ जुटा करती थी.इस मैदान पर गेंद और बैट से अपने हुनर का जौहर दिखाते रमन लाम्बा,मनिन्दर सिंह,चमन लाल,रवि वोहरा,वसिउल्लाह ,रफ़ीउल्लाह ,सुभाष शर्मा और भी न जाने कितने नामचीन खिलाडियों को जनता ने पूरे मनोयोग से देखा और सराहा.
जिमखाना का यही मैदान अनेक ऐतिहासिक राजनैतिक जलसों का भी गवाह बना था.इसी मैदान के मंच से आपातकाल के तुरंत बाद हुई एक जनसभा में ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के साथ उनके जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी हो गई थी जब तत्कालीन सरकार से गुस्साए लोगों ने उनकी एक न सुनी थी और हूट करके मंच छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.यहाँ अनेक धर्मगुरु भी आये तो उनके प्रवचन सुनने के लिए खूब भीड़ जुटी.इस मैदान ने एक अपवाद को छोड़ कर शायद ही किसी को मायूस किया हो.यहाँ आयोजित होने वाली रैली को होने से पहले ही कामयाब मान लिया जाता था क्योंकि इसका आकार ही ऐसा था कि कुछ हज़ार की भीड़ भी उमड़ता- घुमड़ता जन सैलाब का सा नज़ारा बन जाती थी.
यहाँ होने वाली रामलीला की अपनी पहचान थी.रामलीला शुरू होने के साथ ही सारे शहर उत्सवी हलचल को महसूस किया जाने लगता था.बुढाना गेट पर स्थित मिठाइयों की दुकानों से उठती पकवानों की महक के साथ सारा शहर उल्लास के रंग में रंग जाता था.होली पर यहाँ आयोजित होने वाले होली मिलन को कौन भूल सकता है.पत्रकार सतीश शर्मा के लतीफे,क्रन्तिकेतु ,अशोक कपिल, मेराजुद्दीन  सुबोध कुमार विनोद ,झग्गड सिंह,आदित्य पंडित जी  , जगत सिंह ,पूर्व विधायक जय नारायण शर्मा की जीवंत हिस्सेदारी को भुला पाना आसान नहीं था.इसी मैदान पर अनेक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे हुए,जिनकी कामयाबी मिथक बन गई.
जिमखाना था तो रौनक थी लेकिन यह किसी को नहीं पता था कि नगर निगम का इससे कुछ लेना -देना था.इसकी देखभाल में नगर निगम ने कुछ नहीं किया .न कभी चारदीवारी बनी ,न कभी जल निकासी की कोई मुकम्मल व्यवस्था हुई.बरसात में यहाँ तालाब बन जाता तो इस मैदान के किनारे खड़े चाट पकोड़ी, चाउमिंन, पनीर टिक्का, पावभाजी बेचने वालों की बन आती ,लोगों को  लगता मुंबई की चौपाटी मेरठ में अवतरित हो गई है.एक बार नगर पालिका के उर्वर दिमाग में इसके किनारे -किनारे दुकानें बनाने का हसीन ख्याल ज़रूर आया था ,पर व्यापक जन विरोध के चलते कुछ हो न पाया.फिर हुआ यह कि नगर निगम के बंद दरवाज़ों के पीछे से लीज़ की फाइल गुम हो गई और मालिकाना हक का मसला  कानूनी जंग बन गया. तभी एक हलके से आवाज़ आयी -जिसकी जमीन थी उसे ही मिलनी चाहिए,लीज़ खत्म तो बात खत्म.इस दलील के आग तो सारी ऐतिहासिक और सामजिक एहमियत वाली हर विरासत का जमींदोज होना तय है.इससे पहले  बच्चा पार्क एक बिल्डर की महत्वकांक्षा भेंट चढ़ चुका है.अब यदि  घंटाघर पर फास्टफ़ूड का रेस्त्राँ बने तो बनने दो .लालकिले पर मल्टीप्लेक्स बने तो बने और ताजमहल के परिसर में पांच सितारा होटल बनता है  तो इसमें  हर्ज ही  क्या है ?
यह जिमखाने की याद में लिखा शोकगीत है.इसे ध्यान पढ़ें और सहेज कर रखें .इसकी ज़रूरत हमें बार -बार पड़ेगी.अपनी विरासत से आँख मूंदने वालों के हिस्से में शोकगीत ही बचते हैं .यही हमारी नियति है.आमीन !

1 comment:

vijai Rajbali Mathur said...

यहाँ हमने भी कई जन -सभाएं कई दलों की सुनी हैं।सूचना वाकई दुखद है ।

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