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एक थी मादा तोता ,हरे पखों और लाल चोंच वाली |वह पिंजरे मे रहती थी
और उसे अपना घर समझती थी |उसे पेड़ की कोटर से निकाल कर इस पिंजरे तक
कौन लाया, इसका तो किसी को सही –सही पता नहीं | सब उसे मिटठू के नाम से
पुकारते थे |उसका पिंजरा दिन भर घर के दरवाजे के एन ऊपर टंगा रहता और
उसमें बैठी वह मिटठू - मिटठू की रटन्त लगाये रहती |सब उसे प्यार करते,
दुलारते और खाने के कभी फल ,हरी मिर्च तो कभी पूड़ी कचौड़ी मिष्ठान देते
|वह मगन होकर खाती और मस्त रहती |उसकी जिंदगी उस पिंजरे में मज़े से
गुज़र रही थी |
तभी हुआ यह कि उस तोती के मालिक को जाने क्या सूझी उसने कि तोते का
नाम मिटठू से बदल कर अभिव्यक्ति रख दिया |तोते का मालिक खुद को
विप्लवी लेखक समझता था |उसके मित्र छपास रोगी लेखक थे |उन्होंने घन्टों
तोता विमर्श के बाद अभिव्यक्ति का पिंजरा खोल दिया |उनका मानना था कि अभिव्यक्ति
उन्मुक्त होगी तभी तो आकाश की ऊंचाईयों को छू पायेगी |वे अपने इस
कारनामे पर इतना मुदित हुए कि उन्होंने एक सेकंड में एक की दर से
हजारों हाईकू व लघुकथाएँ रच डालीं | वे साहित्य सृजन में डूबे रहे और
अभिव्यक्ति सोचती रही कि वह पिंजरे से बाहर जाये तो जाये कहाँ |
पिंजरा खुला रहा और वह सोचती रही | उसने व्यथित होकर पुकारा –मिटठू
-मिटठू तो मालिक ने उसे तुरन्त डपट दिया –मिटठू नहीं ,अभिव्यक्ति बोल
|अब तेरा यही नाम है |आखिरकार हार -थक कर अभिव्यक्ति अपने पिंजरे से बाहर
निकली |उसने पंख फडफडाये और आकाश में उड़ना चाहा |वह कुछ ही उड़ सकी और फिर
घर के बाहर लगे पेड़ पर जा बैठी |उसने मिटठू मिटठू की टेर लगाई कि कोई तो
उसकी विपदा समझेगा | उसे पिंजरे में वापस पहुंचा देगा |
पेड़ की फुनगी पर बैठी उदास अभिव्यक्ति हमेशा पिंजरे में वापस आने को
आतुर रहती है |उसे पिंजरे से बाहर खतरे ही खतरे दिखते हैं |कभी
बिल्ली से , कभी बाज़ से और कभी गली के शैतान बच्चों की गुलेल से बचना
पड़ता है | भोजन के लिए पूरी जद्दोजेहद करनी है ,फिर भी वैसे मालपुए
कहाँ मिल पाते हैं जैसे पहले मिलते थे बैठे ठाले |उसने पिंजरे के बाहर
जैसे -तैसे जीना तो सीख लिया है पर उसे कष्ट बहुत हैं |
एक दिन उसे अपना पुराना मालिक मिला तो उसने कहा -आपने मुझे अभिव्यक्ति
बना कर मुसीबत मे डाल दिया |मुझे वापस घर ले चलो | मालिक ने कहा
–अब तुझे कौन रखेगा घर में |मैंने सुना है कि तू अब गंदी गंदी गलियां
देना सीख गयी है |सबका मखौल उड़ाती है |अफवाहें फैलाती है | खरी खरी
कहती है |कभी बेहया ट्विटर तो कभी किताबी चेहरे वाले खटरागियों की
संगत में दिखती है |मैंने सुना है कि तू आवारा तोतों को देख कर सीटी भी
बजाती है |मैं ठहरा बाल बच्चों वाला संस्कारवान लेखक तुझे अपने घर में रख
कर मुझे समाज में अपनी थू थू नहीं करवानी |तू जहाँ है ,वहीं रह |
अभिव्यक्ति को पिंजरे से मुक्त हुए अरसा हुआ पर उसे अपने सपनों में
पिंजरा अभी भी दिख जाता है |उसने पिंजरे वापस पाने किस -किस से गुहार
नहीं की पर किसी ने न सुनी | किसी राजा ,सामंत ,दलाल ,साहूकार या
धन्नासेठ का नरमदिल पसीजेगा तब इसका स्वप्न साकार होगा |इनको पालतू
मिटठू ही भाते हैं |
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