इस नए घर में
सब कुछ है
वह सभी साजो सामान
जो बाज़ार में उपलब्ध हैं
तमाम सुख सपनों के
आश्वासनों के साथ
इस घर में नही है
एक अदद आंगन
जिसके रहते
खुली हवा
खिलखिलाती धूप
बारिश की नटखट बूंदे
वाचाल सूखे पत्ते
बहुरंगी आवारा फूल
इठलाती तितलियाँ
चहचहाती चिड़ियायें
चली आती थीं
बेरोकटोक ।
इस नए घर मैं
वह पुराने वाला खुला आसमान
सिरे से नदारद है
जिस पर मैं लिखा करता था
तारों की लिपि मैं
अपने सपनों के गीत ।
इस नए घर मैं
चारों तरफ पसरा है
बाज़ार ही बाज़ार
जिसकी भीड़भाड़ भरी
गहमागहमी में
अक्सर मैं
अपनापन और घर
ढूँढता रह जाता हूँ ।
2 comments:
nice poem
अपनापन और घर
ढूँढता रह जाता हूँ ।....वाह ..सामान दिखावे और ढोना कंधे की मज़बूरी ....अपना पन ढूढती मज़बूरी में आखें !!!!!!!!!अच्छी कविता हकीकत को जमी पर लाती शब्दावली !nirmal paneri
Post a Comment