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Sunday, January 13, 2008

मेरे खवाब

मैं देखता हूँ खवाब
और सोचता हूँ
इन ख्वाबों को
छूपा कर रखूँ
अपनी पलकों की ओट में
मैं नहीं चाहता
कोई देख सके
मेरे इन ख्वाबों को
और हैरान हो
किक यह आदमी
देख लेता है
ऐसे -ऐसे खवाब भी .

1 comment:

Anonymous said...

nice poem

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