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Friday, February 8, 2008

फूल का खेल

आज सुबह नींद से जागा
देखा खिड़की से झांकता
एक नन्हा सा लाल फूल
जैसे कोई शैतान बच्चा
एड़ियों पर उचक कर
झांके खिड़की से
और देखते ही देखते भाग जाए
खिलखिलाता हुआ ।
यह नन्हा लाल फूल
आज ही तो खिला है
खिड़की के आसपास रखे
किसी गमले में।
दिन भर यह फूल
यूंही खेलेगा
ताका झांकी का यह खेल
और खेल ही खेल में
भर देगा मेरे एकाकीपन को
अपनी दिव्य गंध से ।
साँझ ढले यह फूल
तिरोहित हो जाएगा
और फूल की सहचरी
हरी पत्तियां
देर तक हिलती रहेंगी
विदाई का दंश लिए
चुपचाप ।

लेकिन मेरी स्मृतियों
टंका रहेगा यह फूल
अपनी भव्य गरिमा के साथ
और मै खेल लिया करूंगा
जब -तब इसके साथ
ताका झांकी का सनातन खेल ।






1 comment:

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

nirmalji,
bahut achcha laga aapka blog dekhkar.kavitaein dil ko chhu lene wali hain. khas taur sey yeh panktiyan-
आज सुबह नींद से जागा
देखा खिखड़की से झांकता
एक नन्हा सा लाल फूल
जैसे कोई शैतान बच्चा
एड़ीयों पर उचक कर
झांके खिखड़की से
और देखते ही देखते भाग जाए
खिल्खलाता हुआ ।

badhai.

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