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Sunday, October 4, 2009

हिन्दी कविता

जहाँ अवशेष हैं

गगनचुंबी इमारतों से आच्छादित
कांक्रीट के निरंतर विस्तार लेते जंगल में
सतरहवीं मंज़िल पर बैठी फाख्त़ा की
अनथक मनुहार जारी है
इस विश्वास के साथ
कि उसकी यह गुहार
अवश्य सुन लेगा
उसका भटका हुआ साथी
देर या सवेर.

उसकी यह आर्द पुकार
बन जाएगी एक नदी
जिस पर तिरता हुआ
चला आएगा
समय के अवरोधों के पार
उसके पास.

लगभग उसी समय
उसी बालकनी के कोने में
गमले में लगे
थोड़ी-सी साफ हवा
और एक कतरा धूप को तरसते
पौधे पर लगी
एक कली कर रही है
फूल बनने की पुरज़ोर कोशिश
अपनी सुगंध के प्रसार
को आतुर.

नन्ही-सी फाख़्ता की पुकार
और कली के संघर्ष में है
एक जिजीविषा
जिसके चलते दुनिया में
बची है अभी तक इतनी जगह
जहाँ अवशेष हैं
ज़िंदगी के गतिमान रहने के
तमाम अपरिहार्य कारण।

निर्मल गुप्त ,
२०८ ,छीपी टैंक ,
मेरठ -२५०००१
फ़ोन -०९८१८८९१७१८

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