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Saturday, November 7, 2009

बयान

बयान

मैंने अपने ईश्वर को
धीमा ज़हर देकर
धीरे-धीरे मारा है
हो यह भी सकता था
एक धारदार चाकू
हवा में लहराता
और गूँजती एक चीख
देर तक वातावरण में
लेकिन ऐसा हो न सका
मैं उसे इस तरह मारता
तो भला कैसे?
मैंने जब-जब ऐसा करना चाहा
मेरी माँ पूजा घर में बैठी थी
उसी ईश्वर के समक्ष
नतमस्तक।

5 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

मैंने अपने ईश्वर को
धीमा ज़हर देकर
धीरे-धीरे मारा है
हो यह भी सकता था
एक धारदार चाकू
हवा में लहराता
और गूँजती एक चीख
देर तक वातावरण में
लेकिन ऐसा हो न सका
मैं उसे इस तरह मारता
तो भला कैसे?
मैंने जब-जब ऐसा करना चाहा
मेरी माँ पूजा घर में बैठी थी
उसी ईश्वर के समक्ष
नतमस्तक।

निर्मल जी गज़ब की पंक्तिया और गज़ब की सोच है आपकी ....!!

हतप्रद हूँ इस सुंदर कविता पर ....इतनी गहरी पकड़ .....??

मेरी बहुत बहुत बधाई स्वीकारें .....!!

हरि जोशी said...

अंतर्मन तक सपाट से जाते आखर। बधाई।

अरुण चन्द्र रॉय said...

kya baat kahi hai aapne nirmal ji... rongte khade ho gaye... maa hamesha ishwar se badi hoti hai ... aur main natmastak ho gaya... aapki kavita ke aage...

सुशीला पुरी said...

सुंदर लिखा आपने !!!

सुशीला पुरी said...

सुंदर कविता ! पर आपने मेरा नाम आपने गलत लिखा है ।

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