[महान जनकवि धूमिल जी को समर्पित ]
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आखिरकार वह सो गया
भूख से लड़ते -लड़ते
तब उसने एक सपना देखा
गोल -मटोल रोटी का
जो लुढक रही थी
किसी गेंद की तरह
यहाँ से वहाँ
उसे चिढ़ाती
पास जाने पर
दूर भागती
कभी हाथ में आती
फिर फिसल जाती
गर्म रोटी की गंध
उसे बेचैन किये थी
अशक्त शरीर हर हाल में
चाहता था जीतना
खाली अमाशय को
मंजूर नहीं थी हार
रोटी के इस खेल से
ऊबा हुआ शरीर जब जागा
तब भिंचे हुए थे उसके जबड़े
मुट्ठीओं में थी गज़ब की ताकत
मन में था यकीन
वह रोटी का यह खेल
अब और नहीं चलने देगा
न कभी खुद खेलेगा सपने में भी
न किसी को देगा इसकी इज़ाज़त
असंख्य भूखे शरीर
अब केवल सपना ही नहीं देखते.
10 comments:
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भूखे को तो चांद,सुरज भी रोटी ही लगतें हैं ।
bhookh se aakrant hriday ki vyatha ......
aur phir bhookh se ladne ka hausla aakar leta hua....., kavita ko adwitiye maryada pradan kar raha hai!
subhkamnayen!
मन को कुरेद गयी कविता .. रोटी की जलन भीतर तक महसूस की .. विडम्बनाओं से जूझती रोटी मन को छू गयी.
शम्स साहब का आभार कि आपकी इतनी तीक्ष्ण कविता से फेस बुक पर हम सभी को रूबरू कराया.
लेकिन मैं ज्यादा न कह महज़ यही कहना चाहूँगा आपकी ही अंतिम पंक्तियों को ज़रा रद्दो बदल कर :
असंख्य भूखे शरीर
अब सपना भी नहीं देखते.
[सपने भी बंधुआ हैं !! ]
शहरोज़
मैं शायद अपनी बात ठीक से कह नहीं पाया .मैं कहना चाहता था भूखा आदमी अब केवल सपना नहीं
देखता अब वह संघर्ष के लिए तत्पर है .
आपका आभार कि आपने कविता पढ़ी और राय दी .
samajik sarokar ke saath shram sashaktikaran ko darshati rachna..
आदरणीय निर्मल गुप्त जी
नमस्कार !
आज अचानक आपका ब्लॉग नज़र आया है , सधन्यवाद रचना पर प्रतिक्रिया के लिए प्रस्तुत हूं …
आखिरकार वह सो गया
भूख से लड़ते-लड़ते
तब उसने एक सपना देखा
गोल-मटोल रोटी का …
निम्न मध्य वर्गीय आम आदमी की विद्रूपता , संघर्ष और विवशता को सटीक उभारा है …
एक निराशापूर्ण स्थिति से सहज साक्षात् करवाती इस रचना के लिए आभार !
… रचना का पटाक्षेप रचना की ख़ूबी को द्विगुणित करता है ।
असंख्य भूखे शरीर
अब 'केवल ' सपना ही नहीं देखते …
बहुत ख़ूब !
शुभकामनओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आदरणीय निर्मल जी
सबसे पहले क्षमा कि आपसे तो हम उम्मदी लगाये बैठते हैं कि मेरी हर कविता आप पढ़ें और अपनी राय दे.. लेकिन ए़क हम हैं जो आपके ब्लॉग तक कभी नहीं पहुंचे .. आज शब्द और पाखी वाली कविता को तलाशने गया था वहां तो "रोटी" मिली.. पता नहीं क्यों, आपकी कविता को ए़क दृष्टि से देख नहीं पाटा और बहुत कुछ ढूंढता रहता हू.. और मिलता भी है.. रोटी कविता में मुझे हजारों मजदूर खेत, कल-कारखानों में , ठेले.. बाज़ार हाट में काम करते .. सुनी आँखें... आँखों में सपने.. ना पूरा होने का दर्द .. मुझे तो सब कुछ नज़र आ रहा है.. कई बार मैंने स्वयं ही इस कविता को जिया है.. और सुबह ए़क नई उर्जा से जागा हूँ कि.. सपने अब हमारे होंगे... आपकी कविता, यकीं मानिए, ए़क अनुभव है.. हताशा और आशा के बीच ए़क पुल का निर्माण यह कविता, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही है बल्कि उनके प्रति संवेदना भी जागृत कर रही है...
बस देर से पढ़ रहा हू ए कविता इसका अफ़सोस है!
सादर अरुण
आदरणीय निर्मल जी
सबसे पहले क्षमा कि आपसे तो हम उम्मदी लगाये बैठते हैं कि मेरी हर कविता आप पढ़ें और अपनी राय दे.. लेकिन ए़क हम हैं जो आपके ब्लॉग तक कभी नहीं पहुंचे .. आज शब्द और पाखी वाली कविता को तलाशने गया था वहां तो "रोटी" मिली.. पता नहीं क्यों, आपकी कविता को ए़क दृष्टि से देख नहीं पाटा और बहुत कुछ ढूंढता रहता हू.. और मिलता भी है.. रोटी कविता में मुझे हजारों मजदूर खेत, कल-कारखानों में , ठेले.. बाज़ार हाट में काम करते .. सुनी आँखें... आँखों में सपने.. ना पूरा होने का दर्द .. मुझे तो सब कुछ नज़र आ रहा है.. कई बार मैंने स्वयं ही इस कविता को जिया है.. और सुबह ए़क नई उर्जा से जागा हूँ कि.. सपने अब हमारे होंगे... आपकी कविता, यकीं मानिए, ए़क अनुभव है.. हताशा और आशा के बीच ए़क पुल का निर्माण यह कविता, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही है बल्कि उनके प्रति संवेदना भी जागृत कर रही है...
बस देर से पढ़ रहा हू ए कविता इसका अफ़सोस है!
सादर अरुण
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