मेरा शहर एक धूल धसरित शहर है .यहाँ कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं है .यहाँ की मासूम जनता अपराधियों के रहमोकरम पर जिंदा है.झपटमार यहाँ सड़कों पर निर्द्वंद घूमते हैं .महिलाओं के गले से चेन और हाथों से पर्स छीने जाने की घटनाएँ यहाँ रोज होती हैं.लुटारे दिन दहाड़े घरों में घुस कर माल ले कर चम्पत हो जाते हैं.बलात्कार आदि जघन्य कृत्य तो यहाँ होते रहते हैं.मुझे यकीन है कि बशीर बद्र ने यह शेर यहाँ के अपराधियों के होंसलों को देख कर ही कहा होगा -रात का इंतज़ार यहाँ कौन करे,दिन में यहाँ क्या नहीं होता.
सच यही है कि यहाँ दिन में सब कुछ घटित हो जाता है.रात यहाँ आराम के लिए होती है .रात को लुटी पिटी जनता अपनी रूह और शरीर पर लगे घावों को चाटती है.बिसूरते हुए लोग रहम के लिए परवरदिगार से दुआएँ मांगते हैं.डरी हुई महिलाएं अपने सुहाग ,संतति और अपनी अस्मिता के एक दिन और सुरक्षित रह जाने पर जब ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए प्रार्थनाएं बुदबुदाती हैं तो उनके कम्पित स्वर ईश्वर की ओर कम और अपराधियों की दया भावना के प्रति अधिक समर्पित होते हैं.क्या आपको नहीं लगता कि हम सभी इसलिए जिंदा हैं क्योंकि ज़रायम पेशा लोगों की निगाह में हम निरर्थक हैं?उनकी दुनिया में हमारा वजूद एक कीड़े से अधिक नहीं है.
यहाँ अपराधी रात में कम ही सक्रिय होते हैं .वे रात में दिन भर की कमाई की जुगाली करते हैं.आगामी योजनाओं पर विचार करते हैं.राजनीति की मौखिक शतरंज पर अपनी चालों का पैनापन परखते हैं.वे भला क्यों करे रात में वारदात?अपने महफूज़ अभयारण्यों में ओवर टाइम तो केवल मूर्ख किया करते हैं.
हाल ही में एक समाचार आया कि अपराधियों के हौंसले पस्त करने के लिए एक आला पुलिस अधिकारी बिना वर्दी के एक दम साधारण आदमी की वेशभूषा में शहर की सड़कों पर कानून व्यवस्था का मुआयना करने सड़कों पर निकले.मेरी निगाह सुबह सवेरे जब इस आशय के समाचार पर पड़ी तो मेरे कानों में स्वतः ही अस्सी के दशक का यह गाना बजने लगा --जब अँधेरा होता है ......|मैं पूरी तन्मयता से समाचार पढ़ और गीत सुन रहा था और मेरे पास बैठा कुत्ता अनायास भूंकने लगा.शायद उसे भी नेपथ्य में बज़ रहे उस गाने के बोल सुनाई दे रहे थे ...जिसमें अँधेरी रात के साथ चोर -चोर की पुकार भी गूंजती है.अभी तक ऐसी कोई सूचना नहीं है कि आला आधिकारी की इस अप्रत्याशित गश्त से कुछ ऐसा चमत्कार घटा हो,जो राहत देने वाला हो.वैसे मेरी विनम्र राय है कि यदि अपनी वर्दी में पुलिसकर्मी और अधिकारी दिन के उजाले में सतर्क हो जाएँ तो अनेक अपराधी वहां पहुँच जायेंगे ,जो उनके लिए ही बनी है.यकीन मानें ये अपराधी न अतिरिक्त साहसी हैं न कुशाग्र बुद्धी हैं, न अपने हुनर में अतिशय पारंगत और न ही ओलम्पिक स्तर के धावक ,न शूमाकर जैसे प्रतिभावान वाहनचालक,निशानेबाजी में गगन नारंग या अभिनव बिंद्रा भी नहीं हैं .मुक्केबाजी में बिजेन्द्र कुमार या कुश्ती में सुशील कुमार सरीखे भी नहीं हैं.ये दुस्साहसी ज़रूर हैं.इन्हें मुगालता है कि पुलिस प्रशासन इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता.इन्हें अपने संरक्षक राजनीतिक आकाओं पर झूठा भरोसा है कि यदि कोई आपदा आयी तो वो बचा लेंगे.
हम केवल पुलिस पर क्यों आश्रित क्यों रहें ?सब मिलजुल कर इनका प्रतिकार करें तो इनका पराजित होना तय है.पुलिस बेचारी क्या करे ,उसके कंधे पर वीआईपी ,वीवीआईपी लोगों की रखवाल ,आवभगत ,प्रोटोकाल पोषित आदर सत्कार और शिष्टाचार का गुरुतर दायित्व भी तो है.
मेरा शहर चाहे जितना धूल धसरित हो पर इसकी मिट्टी ने अभी नपुंसक कायरों को जन्म देने कारोबार शुरू नहीं किया है.यह शहर जागेगा तो इन छुट्टे घूम रहे ज़रायम पेशा लोगों और उनके सफेदपोश आकाओं पर बहुत भारी बीतेगा.
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