आस्था क्यों हुई जानलेवा
ओ३म् भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
-यजु| ३६|३
अर्थ -
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग भूः-कर्मकाण्ड की विद्या,भुवः-उपासना काण्ड की विद्या और,स्वः-ज्ञानकाण्ड की विद्या को संग्रहपूर्वक पढ़के,यः-जो,नः-हमारी,धियः-धारणावती बुद्धियों को,प्रचोदयात्-प्रेरणा करे उस,देवस्य-कामना के योग्य,सवितुः-समस्त ऐश्वर्य के देनेवाले परमेश्वर के,तत्-उस इन्द्रियों से न ग्रहण करने योग्य परोक्ष,वरेण्यम्-स्वीकार करने योग्य,भर्गः-सब दुःखों के नाशक तेजः स्वरूप का,धीमहि-ध्यान करें वैसे तुम लोग भी इसका ध्यान करो।( स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के वेदभाष्य से)
गायत्री मन्त्र से मेरा गहरा आत्मीय लगाव है |इस मन्त्र को साथ लेकर मैं बड़ा हुआ हूँ |इसे मैंने पूरी समग्रता के साथ जिया है |यह मन्त्र मेरे सुख दुःख का साक्षी रहा है |यह मेरे साथ मेरी प्रत्येक पीड़ा ,कष्ट ,व्याधि |अनिर्णय की स्थिति में रहा है |यह मन्त्र तब भी उच्चारित हुआ जब कोई खुशी ,प्रसन्नता ,आह्लाद ,कोई भावातिरेक ,आनंदित उन्माद या फिर किसी कोमल तरंग ने हौले से दिल को छुआ |मुझे यह मन्त्र अनायास नहीं मिला ,इसे मैंने अपने उदारमना पिता से बड़ी मिन्नत के बाद पाया |इसमें मेरे पिता के अनुभूत सत्यों की वह ऊष्मा है ,जिसे उनके इस भूमंडल से कूच कर जाने के बरसों बाद भी मैं अनुभव कर सकता हूँ |इसमें उनकी दी हुई वह सीख भी संलग्न है जो यह बताती है कि प्रार्थनाएँ कभी वाचाल और निहित स्वार्थ में संलिप्त नहीं होती और वह प्राय: मौन के मध्य मुखरित होती हैं |सेक्युलर विचार के हामी मेरे पिता ने अपनी प्रार्थनाओं को सार्वजनिक नहीं किया और उनकी आस्था हमेशा अडिग रही |
लेकिन गायत्री महाकुम्भ में हुए जानलेवा हादसे के बाद मेरा मन अनेक सवाल पूछना चाहता है |क्या गायत्री महाकुम्भ के नाम से अपनी दुकान ज़माने में लगे आयोजकों से उन मर्मान्तक चीखों और पीड़ा का हिसाब नहीं माँगा जाना चाहिए ,जो आस्था के व्यवसाय के प्रसार में पूरी शिद्दत से लगे हैं |उनसे ये नहीं पूछना चाहिए कि १५५१ कुंडीय यज्ञ के जरिये टनों देसी घी ,सामग्री का दहन करके किस विश्व कल्याण का मुगालता पाले बैठे थे |वे क्या कारण थे कि यज्ञ में विघ्न पड़ने से चिंतित उन कर्मकांडियों को महिलाओं तक की चीत्कार भी नहीं सुनाई पड़ी ‘
सूचना तो यह भी है कि जब महिलाएं और पुरुष मर रहे थे तब आयोजकों के कारिंदे लोगों को यह जताने में लगे थे कि कहीं कुछ नहीं हुआ |वे चाहते थे कि यज्ञ पूर्ण हो जाये |वे चाहते थे मंचासीन अतिथि की भरपूर आवभगत में कोई बाधा न पहुंचे |वे तो इस भव्य आयोजन के जरिये अपना इहलोक और परलोक सुधरने में लगे थे |
सवाल तो उस धर्मभीरू मानसिकता से भी पूछना होगा कि आस्था के कारोबारियों के एक बुलावे पर अपना घरबार छोड़ कर निजी सुरक्षा की चिंता किये बिना वे लाखों की संख्या में एकत्र क्यों हो जाते हैं|इस अनेक कुंडीय यज्ञ में कुछ आहुति देने से क्या होने वाला है |अब तक ऐसे आयोजनों में इतने लोग प्राण गवां चुके हैं ,जिनकी फेहरिस्त के सामने वर्ड ट्रेड सेंटर त्रासदी के मृतकों की सूची गौण मालूम देती है |वहाँ तो आतंकवादियों ने एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत मौत बांटी थी ,हमारे यहाँ तो धर्म की आड़ में मानवीय सरोकारों से खिलवाड़ करने वाले अपनी मनमर्जी के लिए आजाद हैं
आस्था का जानलेवा हो जाना ,इस समय की सबसे खतरनाक खबर है |इससे भी अधिक भयावह है आस्थाओं को व्यापारिक उपक्रम बना देने का घिनोना खेल |प्रार्थनाएँ अब ईश्वरीय शक्ति के समक्ष मौन संवाद का उपकरण नहीं रही हैं |युगों -युगों से आत्मबल का संबल रहे मन्त्र भी धर्म के दलालों के हाथों में पड़कर अपनी उपादेयता खोते जा रहे हैं |
मेरी गायत्री मन्त्र में आज भी आस्था है |पर अब मेरा तार्किक मन मुझसे अनेक ऐसे सवाल पूछ रहा है ,जिनके जवाब ढूंढे बिना मुक्ति नहीं| |धर्म और आस्था के दुकानदारों के विरुद्ध प्रतिकार की बुलंद आवाज़ आज की ज़रूरत है |
2 comments:
दुखद!
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