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Sunday, April 1, 2012

चर्चा के चरखे पर चिंता की कपास


                  मेरे शहर में आजकल चर्चाओं के चरखे पर अपनी –अपनी दुश्चिंताओं  की कपास खूब काती जा रही है |वैसे तो यह समय गर्मी के मौसम के आगमन की पहली सूचना के साथ मच्छरों  मक्खियों और विद्युत विभाग  को गरियाने का है |नौचंदी के मेले का अधिकारिक आगाज़ हो चुका है |पर बच्चों के इम्तेहान के चलते मेले से जुड़ा उत्साह, उमंग और हलुए पराठें की गंध को लोगों ने अपने घरों के बाहर किसी अवांछित मेहमान की तरह रोका हुआ है |इस समय चारों ओर अनिश्चितता और तनाव  है |बच्चे अपने केरियर  को लेकर आशंकित  हैं और अविभावक उनकी बेचैनी की तपिश में झुलस रहे हैं |उनके पास बहुत कम विकल्प हैं |विकल्पहीनता आदमी को बेचैन कर देती है | इससे निजात पाने का उपाय होता है ,अपने को आवांतर प्रसंगों में उलझा देना |ये अपने होशोहवास बनाये रखने के लिए आदमी का बनाया  सुरक्षा तंत्र है, जैसे मकड़ी का बनाया जाला ,जिसे मकड़ी किसी को देखने दिखाने के लिए नहीं अपने को बचाए रखने के लिए बुनती है |लेकिन आदमी और मकड़ी के जाले में फर्क यह होता है कि मकड़ी अपने बनाये जाले में कभी नहीं उलझती पर आदमी उसी में ताउम्र उलझा रह जाता है |
                  मार्निंग वाक् हो , कोई फेशनेबल जिम , किसी मैदान में रोज लगने वाला योग प्रेमियों का ज़मावडा, किटी पार्टी ,  सड़क की पटरी पर स्थापित चायखाना या फिर नुक्कड़ पर रखा पान का खोखा हर जगह एक ही मसले पर विचार विनिमय हो  रहा है कि उनके नौनिहालों को कैसे मिल पायेगा किसी ढंग के इंजीनियरिंग कालेज, |मेडिकल कालेज ,होटल मेनेजमेंट , बिजनेस स्कूल या फिर नामवर विश्वविद्यालय में दाखिला |यह हालात तब हैं जब शहर में अनेक इंजीनियरिंग कालेज ,मेडिकल कालेज ,होटल प्रबंधन के संस्थान ,मेनेजमेंट कालेज , एकाधिक युनिवर्सिटी नाना प्रकार के अन्य संस्थान मौजूद हैं |मेरा शहर अब अत्याधुनिक एजुकेशनल हब बन गया है |पर इस विज्ञापनी दावे कोई नहीं मानता |कहने वाले तो इसे  एजुकेशनल हब नहीं ऐसा  पब मानते हैं ,जहाँ रोजगारपरक पढाई का गाम्भीर्य कम दिखावे का पांच सितारा सरूर अधिक है |कुछ लोग तो यहाँ तक कहते पाए गए हैं कि हमारे शहर के उच्च शिक्षा के संस्थान तो उस खटारा गाड़ी जैसे हैं जिनके हार्न के अलावा सब कुछ बजता है |यहाँ के एक विश्विद्यालय की तो ऐसी विश्व्यापी ख्याति है कि यहाँ के इम्तेहानों की उत्तर पुस्तिकाएं पांचवी कक्षा के क्षात्र जांचते हैं |इस विश्विद्यालय के नाम को नौकरी के लिए दिए गए बायोडाटा में पढ़ते ही इंटरव्यू लेने वाले   जानकार गुणीलोग  ऐसे हँसने लगते हैं, जैसे लाफ्टर चेलेंज के प्रतिभागियों के अश्लील लतीफे सुनकर जज की कुर्सी पर बैठी अर्चना पूरन सिंह हँसती है |
              इतने सारे उच्च शिक्षा के संस्थान होने की गर्वोक्ति के बावजूद यह इस शहर की त्रासदी है कि यहाँ जन्म लेकर यहीं पले बढे बच्चों में से हर तीसरा बच्चा यदि कोई सपना पालता है तो वह है यहाँ से शीघ्रातिशीघ्र पलायन का |सूचना क्रांति ने सबको इतना जागरूक तो बना ही दिया है कि वे अपने मुस्तकबिल के लिए उम्मीदों से भरे सरसब्ज इलाके की शिनाख्त कर सकें |अब बच्चे इतने मासूम नहीं रहे कि अपना घर ,अपनी हवा और अपनेपन का दामन थामें किसी भुलावे में जिंदगी गुज़ार दें |यकीनन यह निर्दयी समय है और इसमें जिन्दा रहने के लिए बच्चों ने निष्ठुर होना सीख लिया है |यही वजह है कि मेरा शहर तेज़ी से एक ऐसे मरुस्थल में तब्दील होता जा रहा है जहाँ केवल बीमार और बूढ़े रहते हैं जिनके पास यहीं जीना  और मरना  एकमात्र उपाय है |
             अभी कुछ दिन पहले यह खबर आई कि मेरा शहर प्रदेश की क्राईम केपिटल बन गया है |जिस शहर को तमाम अहर्ताओं और जद्दोजेहद के बाद एक अदद हाई कोर्ट की बेंच तक  नहीं मिली उसे चंद गिरोहबंद लोगों ने अपनी अपराधिक,राजनीतिक और सरकारी तंत्र से साठगांठ की प्रबंधकीय कौशल के चलते कितनी आसानी से क्राईम केपिटल बना दिया ,ये सोच कर हैरत होती है|पर अपराधियों का निरापद आरण्य बन जाने के बाद भी ये सोच कर डर नहीं लगता कि हम तो अपनी जिंदगी जी चुके ,अब किसी के करने या न करने से कुछ बनना बिगडना नहीं |बस बच्चे एकबार यहाँ से निकल कर किसी सभ्य सुरक्षित जगह , इस अभिशप्त शहर के साये से दूर अपना आशियाना बना लें तो .....
             चर्चाओं के चरखे पर काती गई कपास से बने सूत से मेरा शहर जगह –जगह से उधड़ती जा रही अपनी  जिंदगी में  पेबंद लगाने की एक फ़िज़ूल सी  कोशिश कर रहा है |

              
                                                                                                
               

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