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Saturday, July 23, 2011

जात तो पूछो साधो की ....


मुझे पता चला है कि हिंदी में गज़ल विधा को एक स्थाई पहचान देने वाले और अपने अशआरों के जरिये तहलका मचा देने वाले प्रख्यात गज़लकार दुष्यंत कुमार कभी मेरे शहर में रहा करते थे.तब वह आकाशवाणी में मुलाजिम थे और अपनी मोटरसाइकिल से दिल्ली जाते थे.वह कहाँ रहते थे ,इसका तो किसी को कुछ नहीं पता पर ये अलबत्ता सबको पता है कि वह त्यागी थे जबकि उन्होंने अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द लिखने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं की.पहले वह खुद को परदेसी कहते थे ,बाद में वे केवल दुष्यंत कुमार हो गए.संभवतः उन्हें परदेसी शब्द का भार भी अपने नाम के साथ अनावश्यक बोझ लगा होगा.लेकिन जब वह एक के बाद एक हाहाकारी गजलें लिख कर लोकप्रियता के चरम शिखर पर थे तब वह 42 वर्ष की अल्पायु में आहिस्ता से इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए .उनके जाने के बाद उनकी याद में जो पहला जलसा हुआ उसका आयोजन एक त्यागी संगठन ने किया तब बहुत से लोगों को पता चला -अरे यह तो त्यागी था.इस सभा में दुष्यंत के कृतित्व और उनके साहित्यिक योगदान पर भी खूब बातें हुई ,लेकिन जो मुद्दा उभर कर सामने आया वह यह था कि वह त्यागी थे इसलिए हम त्यागियों को उनपर गर्व है.
मेरे शहर में प्रतिभाओं की शिनाख्त ऐसे ही होती है .मैं अब अपनी बिरादरी के लोगों को यह बताने की सोच रहा हूँ कि अपने समय की अप्रतिम कहानीकार होमवती देवी को आप लोग क्यों भुला बैठे हो ,उनके स्मृति में कुछ क्यों नहीं करते.शायद उनके नाम में जातिसूचक शब्द के अभाव के चलते ऐसा हुआ होगा .इसी प्रकार जब इतिहासकार डा.देवेन्द्र सिंह ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में धन्ना सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका और उनके बलिदान की गाथा को उजागर किया तो शुरू में उसका किसी ने संज्ञान नहीं लिया ,लेकिन जब कोतवाल धन्ना सिंह के गुर्ज़र समुदाय का होने का पता चला तो वे रातो रात धन सिंह गुर्ज़र के रूप में हमारे गौरवशाली अतीत की धरोहर बन गए.उनकी स्मृति में हर साल कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा और उनकी प्रतिमा भी स्थापित हो गई.
मंगल पांडे की 1857 में हुई क्रांति में अहम भूमिका रही थी.हालाँकि वे मेरठ कभी नहीं आये थे.यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.इनकी ब्राहमणी वेशभूषा वाली प्रतिमा मेरठ  शहर के प्रमुख चौराहे पर स्थापित है.सारा शहर हर 10 मई को उन्हें पूरी श्रद्धा से नमन करता है.मंगल पांडे के बलिदान को को भुलाया भी कैसे जा सकता है .पर एक सवाल तो फिर भी उठता है कि सैन्य वेशभूषा वाले मंगल पांडे हमारे लिए कुछ कम आदरणीय हो जाते ?अब तो मंगल पांडे के बरअक्स मातादीन को कम तरजीह देने का सवाल भी उठने लगा है.यह भी निर्विवाद सत्य है कि मातादीन का बलिदान भी किसी प्रकार मंगल पांडे के मुकाबले दोयम दर्जे का नहीं था.मंगल पांडे को अंग्रेजों के खिलाफ प्रेरित करने में मातादीन की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता .मंगल पांडे और मातादीन दोनों ही इतिहासपुरुष हैं ,इनके प्रति हमें बिना जातिगत भेदभाव के नतमस्तक होना ही चाहिए.
मेरे शहर के रंग ढंग हमेशा अजीबोग़रीब रहे हैं.मेरे एक कवि मित्र ने अपनी  जिंदगी का दो तिहाई हिस्सा  प्रेमी उपनाम के साथ बिता दिया ,पर जब पुत्र के विवाह का अवसर आया तो उन्हें अपने उपनाम को त्याग कर जातिसूचक शब्द अंकित करने की ज़रूरत महसूस हुई.उम्र भर जातपांत के खिलाफ अलख जगाने वाले इस कवि की बेचारगी को क्या कहा जाये.नोयडा में रहने वाले एक कवि के घर के बाहर जो नाम पट्टिका लगी थी उस पर दर्ज था -अमुक  रमेश,एक दिन वह पट्टिका बदल कर हो गई रमेश चन्द्र शर्मा.तहकीकात की तो पता लगा उनकी पुत्री विवाह योग्य हो गई थी ,रिश्ते वाले आते थे तो पुरानी वाली पट्टिका से बड़ा कन्फ्यूजन होता था.ऐसे अनेक उदहारण है पर उनका उल्लेख करूँगा तो हो सकता है कि सिर फुट्टवल की नौबत आ जाये.इस अधैर्यशील शहर में सच उजागर करने पर यह खतरा तो रहता ही है.
संत कबीर ने नसीहत दी थी -जात न पूंछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान \मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान.
मेरे शहर में म्यान की समुचित शिनाख्त के बिना सर्वश्रेष्ठ तलवार का भी कोई मोल नहीं होता.बिना बढ़िया रेपर के यहाँ कोई माल नहीं बिका करता.

7 comments:

ALOK PURANIK said...

भई अब तो कार ही पूछो साधु की हो गया
किस कार का मालिक है बोलेरो वाला है कि जायलो वाला

मनोज कुमार said...

दुष्यंत जी के बारे में कई जानकारे देता विचारोत्तेजक आलेख।

Bharat Bhushan said...

भारतीय समाज में नाम के साथ जातिसूचक शब्द लगाने की प्रवृत्ति अचेतन मन में सक्रिय रहती है, इतनी कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा - 'जात ही पूछो साधु की....पड़ा रहन दो ज्ञान'.
इसी बहाने आपके आलेख से कई जानकारियाँ मिलीं. आभार

Dorothy said...

काफ़ी विचारोत्तेजक और प्रासंगिक आलेख. आभार.
सादर
डोरोथी.

Dorothy said...

काफ़ी विचारोत्तेजक और प्रासंगिक आलेख. आभार.
सादर
डोरोथी.

vijai Rajbali Mathur said...

आजादी के बाद का लोकतन्त्र है यह?

निर्मल गुप्त said...

भाई आलोक पुराणिक ,मनोज कुमार जी .भूषण जी ,डोरथी जी तथा आदरणीय विजय माथुर साहब -आप सबने मेरा लिखा पढ़ा और सराहा -आभारी हूँ |

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